बहुत चमकीले थे ,कांच के ख्याव
बहुत चमके ,बहुत भाये हमे
रोज रोज देखते थे हम बड़ी आस लगाकर
एक रोज टूटे उसे जख्म हाथ से लेकर दिल तक आये
बहुत चमकीले थे ,कांच के ख्याव
बहुत चमके ,बहुत भाये हमे
रोज रोज देखते थे हम बड़ी आस लगाकर
एक रोज टूटे उसे जख्म हाथ से लेकर दिल तक आये
इश्क़ करोगे तो दर्द तो होगा,
प्यार में लोग अक्सर रो कर चुप हो जाते है!
हम कहते है हमे मोहब्बत है तुम से,
और वो क्यो है मोहब्बत ,इसका जवाब माँगते
में देखती हूं एक लम्हा तुम्हारी राह
वक़्त कहता है,
किसी के इंतज़ार में नही रुकूँगा में
सुबह से शाम तक वैसा ही मंज़र ,जैसे ज़िंदा हो ज़िंदा लाशें
मुस्कुराहटें वैसे ही चेहरे पर ,जैसे ज़िंदा हो ज़िंदा लाशें
नमी भी नही वाकी आंखों में उनके,
सुखी सुखी सी हो जैसे ये ज़िंदा लाशें
आम लोगो से जिस्म है इनके,
फिर क्यों ज़िंदा नही ,ये ज़िंदा लाशें
काठ की गुड़िया सी है ,दर्द से परे
खूबसूरत बहुत ,बेबस मगर ये ज़िंदा लाशें
कितनी बेपरवाह है ये
ज़िंदा नही जो ये ज़िंदा लाशें
मौत के बेहद करीब सी है
ज़िंदा नही जो ये ज़िंदा लाशें
कुछ गुमनाम सी गमगीन है
सीने में नासूर लिए क्यो अब भी जिंदा है ये ज़िंदा लाशें
बिल्कुल आम है इंशा जैसी
भीतर से मरी मरी ये ज़िंदा लाशें
नूर भी फीके पड़े है चेहरे से इनके
बेनूर सी फीकी है ये ज़िंदा लाशें
“ख्याब” भी हिस्सा है इनका,
ज़िंदा है मगर बैसे ही जैसे ज़िंदा है ये ज़िंदा लाशें
कितनी बेदर्द है कि ,दर्द की खबर होती नही
खुशी तो नही ,मगर गमो में कमी होती नही
मुद्दतों बाद गमो से समझौता तो किया हमने
पर क्या है तेरी नाराजी, जो खत्म होती नही
हंसाती है मुझे एक पल को कभी,
फिर क्या है इन अशुओ की जो कमी होती नही
जाग जाग कर कई राते गुजारी मैंने
की दिन की झपकियां में ये नींदे पूरी होती नही
सहर भी हुई, साँझ भी हुई
मुक्कमल जहाँ है , फिर भी गमों में कमी होती नही
तन्हाइयां है बेसुमार क्या कहे अब
कुछ करीबी से है मगर उनसे बातें अब होती नही
मंत्रते हर तड़प के बाद मांग लेते है खुदा से
काफिराना है मगर दुआओ में कमी होती नही
तन्हा थे तन्हा है तन्हाई के साथ
इन महफ़िलो में अब हम से हंसी होती नही
नाम के रिश्ते ,नाम के नाते ,क्या कहे
इन अपनो में दुश्मनों की कमी होती नही
“ख्याब” रोती है तो दिल को सुकू है शायद
ख़ुशी न सही मगर गम में कमी होती नही
कोई मुझे नशे का एक जाम ला दो
अभी में होश में हूँ थोड़ी और पिला दो
शाम अभी तो शुरू हुए है, रात कटे अब कैसे
जाम नही मैखाना ला दो , बेहोशी तक पिला दो
बेहोशी का होश न टूटे ,साकी को बहला दो
मैखाने में जाम नही तो,सागर जाम पिला दो
महफ़िल- महफ़िल भटक -भटक कर ,तन्हा ही हम लौटे
साकी मिला न कोई हमको, जरा रात बहला दो
रात परिंदे हमको ताके ,होश हमारा जाने,
चारो तरफ है घोर अंधेरा , जुगनु दीप जला दो
ये सन्नाटे जान न ले ले,सरगम तान सुना दो
जान अभी भी बाकी है,तो एक प्याला और ला दो
कतरा कतरा दर्द वहे ,और वहते मुझमे जाम
मदिरालय का जिक्र करो बस , हमे वहाँ पहुँचा दो
बेहोशी का होश हमे है,एक जाम और ला दो
होश रहे न बेहोशी का , भर भर होश पिला दो
रात अंधेरी जग जग कर भटक रही है देखो
ये अम्बर तुम रात को कहकर एक पल तो सुला दो
चलते चलते कदम है हारे, काफिर को पहुँचा दो
झीनी झीनी सुर्ख रोशनी “”ख्याव””को घेरे जुगनु
पड़े -पड़े अब होश नही है ,मुर्दे को दफना दो
प्यासा ही रुकसत है साकी ,मेरी प्यास बुझा दो
जहाँ दफन हो ये साकी तो ,मदिरा भी दफना दो
##सपना विवेक चौधरी##
पेशेवर कातिल थे वो लगता
क़त्ल किया और सुराग़ भी नही छोड़ा
क़ब्र पर आए मलाल भी थे हमें
कुछ यूं मुकुराए कि कोई मलाल न छोड़ा
चाँद लगता है बूढ़ा होता जा रहा है
देखो तो ,
कितने दाग धब्बे होते जा रहे है
परेशा है लगता चाँद,
की मायूस है,
की गुमसुम है ,
चुपचाप सा रहता है
रोज आ जाता आंगन में ,
बाल्टी में आकर बैठ जाता चुपचाप
पता नही कब आता कब जाता
बस बैठा मिलता मेरे साथ
कुछ नही कहता गुमसुम
बस पड़ा रहता बाल्टी में
जैसे सागर में तैर रहा है
आराम से
में जाती तो पीछे पीछे आता
फिर लगता शायद निराश है
दो पल बैठ जाती हूं पास में
और उसे आराम करते देखती
चाँद भी आराम से सो जाता
में जैसी हूँ , ये भी कुछ मेरे जैसा है
कभी कभी मेरा अक्स लगने लगता
हमदर्दी बड़ी है चाँद से
अकेला है ना
बिल्कुल मेरे जैसे
इंतज़ार भी करता है
मेरे जैसे,
मेरा चाँद भी शायद
मेरे जैसा ही है
मेरा अक्स है
मेरे जैसा है
मेरा चाँद मेरे जैसा है
दुआए बहुत मांगी मैने खुदा से
मगर पूरी न कोई ,
एक रोज बस पूछा खुदा से,
शिकायत क्या है जो मेरी दुआ तक कुबूल नही
मुस्कुरा के खुदा बोला दुआ तो मांगी तुमने,
मगर दुआ में भी तो मांगों कुछ